यूँ ही गाँव-खेती से जुड़ा करो …
मन्दलोर गाँव रावण भाटा
अभनपुर के मन्दलोर गाँव में हमारी खेती है. बचपन में बाबूजी (दादाजी) के साथ आते-जाते रहने के कारण खेती में मेरी दिलचस्पी रही है. स्कूली दिनों में दशहरा-दीपावली के महिने-डेढ़ महिने और फिर शीतकालीन छुट्टीयों में मेरा गाँव जाना होता था. बाबूजी के साथ खेत घुमना और उनकी बातों को सुनना मुझे रोमांचित करता था. बाबूजी ‘कृषि विस्तार अधिकारी’ थे और हमेशा दौरे पर रहते थे, साथ ही वे उन्नत कृषक भी थे. रिटायर होने के बाद पुस्तैनी बंटवारे में मिली अधिकांश जमीनें जो कि भर्री थी, सुधारने में भीड़ गये. सालों के मेहनत से उन्होने जमीन को खेती लायक बनाया. मुझे याद है उस समय उपज भी नही होती थी और सरकारी दरें भी नही के बराबर थी. (आज भी नही के बराबर है) धान बेचने के लिए कई दिन और रात नयापारा (राजिम) मंड़ी में बिताना पड़ता था.
करपा बाबूजी ब्यारा में खरही के साथ पंखा से धान उड़ाते
उन दिनों खेती दिवस बहुत लम्बी हुआ करती थी. धान पकने के बाद, पहले घान कटाई फिर कुछ दिनों तक धान (करपा) खेतों में ही पड़ा रहता था फिर धान ब्यारा तक पहुंचाना (भाड़ा ढुलाई करना) फिर ब्यारा में एकत्रित करना (खरही बनाना) और जब सारे धान ब्यारा में पहुंच जाता था तब बेलन चलना, धान उड़ाना और बोरे में भराई शुरू होती थी. तक जाकर धान बिकने को तैयार होता था. इस पूरे प्रक्रिया में दो महिने भी लग जाया करते थे. उस समय हमारे खेत बहुत उर्वरक थे, गोबर खाद का ही उपयोग हुआ करता था. हम मोटे और पतले दोनो धान बोया करते थे. धीरे-धीरे ट्रेक्टर और अब हार्वेस्टर के आने से दो महिने का काम दो दिन में हो जाता है. समय के साथ मजदूरों का नही मिलना और देरी होने से कृषि में बदलाव आना शुरू हो गया.
जब मैं गर्मी की छुट्टियों में जाया करता था तब तिवरा, चना, धनिया, अलसी, सरसों और गेहूँ भी देखने को मिल जाया करती थी साथ में बेर और ईमली भी. जो अब पूरी तरह से बन्द हो गयी है. धीरे-धीरे फसल भी सिमटते गया और वर्तमान में केवल घान का उत्पादन होता है. अधिक कीटनाशक और रासायनिक खाद के कारण खेतों की उर्वरूकता भी खतम होती गयी. समय के साथ-साथ हमने भी खेती करनी बन्द कर दी और खेत रेहगा में दे दिया लेकिन मैने शौकिया खेती जारी रखी.
किसानों भाई-बहनों के साथ स्कूल
गाँव में खाली पड़े मकान को कुछ बदलाव के बाद मैने छोटे से स्कूल के रूप में तब्दिल कर दिया इस तरह से गाँव में आना-जाना लगा रहता है. खेती करना मेहनत, धर्य, देखभाल और विश्वास का काम है. मौसम कभी एक सा नही रहता. आर्थिक चुनौती के साथ-साथ मजदूर, पानी, मवेशी और बिमारी से भी जुझना होता है. यह प्रक्रिया बहुत कुछ सीखाता है और प्रकृति के व्यवहार का भी आनन्द लेने का सुख मिलता है. खेती से जुड़ना भी पड़ॆगा और जुझना भी पड़ेगा.
दिनांक : 11.07.2020, शनिवार
तेजेन्द्र ताम्रकार
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