बर्बादी के मुकदर्शक
कुछ दिन पहले, जब मैं अपने गांव से रात 8.30 को रायपुर के लिये निकला था तब वहां बिजली कटी हुई थी और रास्ते भर अन्धेरा था. मेरा गांव नई रायपुर (राजधानी) परिक्षेत्र से लगा हुआ है. जैसे-जैसे मैं रायपुर-अभनपुर मुख्य मार्ग की तरफ पहुंचा, रौशनी दूर से ही दिखने लगी. ग्राम उपरवारा के पार होने के ठीक बाद ‘पुरखौती मुक्तांगन’ आया. रौशनी से नहाया हुआ ‘पुरखौती मुक्तांगन’. गांव में अन्धेरा और पुरखौती मुक्तांगन चकाचक. यह वही जगह है जहाँ कुछ महिने पहले राष्ट्रपति ऎ.पी.जे. अब्दुल कलाम आये थे. मुझे याद है कि राष्ट्रपति के आने की तैयारी में, कुछ दिनों में ही किस अफरा-तफरी में वहाँ का रंगरोगन, वृक्षारोपण और जानवरों और आदिवासीयों के मिट्टी और लोहे के कलात्मक पुतले रखे गये थे. मै तो उस समय भी दंग रह गया था कि जोगी शासन के समय से शुरू हुये और कछुये की रफ्तार से चल रहा काम, कैसे इतनी जल्दी हफ्ते भर के अन्दर सजधज कर तैयार हो गया! ठीक उस दिन तरह, इस रात को भी मैं दंग रह गया कि उस ‘पुरखौती मुक्तांगन’ में जहाँ रात को बमुश्किल एक-दो चौकीदार और मिट्टी और लोहे के पुतले के अलावे कोई रहता नही, उनके लिये बिजलीयाँ जलती रही. बड़े-बड़े और लम्बे-लम्बे मिट्टी और लोहे के पुतले चमक रहे थे. बगीचे चमक रहे थे. जिन कमरों में कोई नही रह रहा था वहाँ के आसपास की भी बत्तीयाँ जल रही थी और जिस गाँव में यह बना, गाँव उपरवारा, वहाँ बिजली गुल थी. वहाँ से जैसे ही आगे बढ़ा सामने निमोरा गांव था, इस गांव के ही बराबर के क्षेत्र बसा यहाँ ‘छत्तीसगढ़ ग्रामीण विकास संस्थान’ स्थित है और पूरा क्षेत्र रौशनी से नहाया, चकाचौंध था. आश्चर्य होता है, सरकार के गांव में इस तरह के बिजली कटौती के फैसलें पर.
गांव के लोग किन हालातों में रहते होंगे इसका अनुभव मुझे केवल एक दिन और रात में ही हो गया. रबी की फसल के कारण आजकल किसान देर शाम तक खेतों में काम करते है. बढ़ती गर्मी और मच्छरों से ग्रामीण पहले से ही हलाकान है. बच्चों पर खेती में हाथ बटाने और साथ ही स्कुल और कॉलेज की परीक्षाओं का भी बोझ है. गांव में प्रतिदिन रात को 8 से 9 बिजली गुल रहती है. कभी-कभी दिन में भी और सुबह-सुबह 3-4-5 बजे भी बिजली गुल हो जाती है. किस समय और कितने देर के लिये कोई नही जानता. लेकिन रात के 8-9 बजे का समय तय है और यही वह समय है जो खाना बनाने और खाने का होता है और साथ ही बच्चों के पढ़ाई का और थोड़ॆ बहुत मनोरंजन का.
अभी चैत्र नवरात्री बड़ी श्रद्धा और धुमधाम के साथ मनाया गया. सैकड़ो-हजारों की संख्या में लोग जिनमें बड़ी संख्या में नौजवान भी सड़कों पर, बसों में, जीप, ट्रैक्टर और रेलगाड़ीयों में भर-भर कर, और बहुत से लोग दल बनाकर नंगे पाव, तपती धुप में डोंगरगढ़ और पास के मन्दिरों में भगवान के दर्शन करते देखे गये. नौ-नौ दिन तक उपवास रखे गये. शहर-शहर और गांव-गांव में (जब भी बिजली रही) दिन-रात लाऊडस्पीकर बजते रहे, सजावटी झालरें और 500-1000 वॉट के बल्ब जलते रहे. एक-दो दिन भी नही, पूरे नौ-नौ, दस-दस दिन तक यह लगातार चलता रहा.
खैर, जैसे-जैसे मैं रायपुर शहर के चकाचौंध में प्रवेश करते गया वैसे ही मेरा ध्यान उन जगहों और वस्तुओं में जाता गया जहाँ बिजली की चोरी और बर्बादी होती है. कही सड़क के एक तरफ रितिक रोशन 4 ऊपर, 4 नीचे और 2-2 अगल-बगल में लगे 500-500, 1000-1000 वॉट की रौशनी से नहा रहे थे तो कहीं राजनांदगांव चुनाव से पहले लगे होडिंग्स में रमन और बृजमोहन मुस्कुरा रहे थे. अच्छा है कि सभी होर्डिंग्स पुराने है, अब इनके मुस्कुराते फोटो शायद ही मिलें. इन कीमती, सभी पुराने होर्डिंग्स को पुरखौती मुक्तांगन में रखवा देना चाहिये.
ये कैसी जिन्दगी जी रहे है. शहरों में जाकर काम करने वाले लोग जब देर शाम-रात, वापस अपने घर पहुंचते है और अंधेरा मिलता होगा तो क्यों उन्हे गुस्सा नही आता. एक तरफ तो धड्ल्ले से बिजली की बर्बादी और चोरी हो रही है और वहीं दुसरी तरफ गांव में अन्धेरा छाया हुआ है, लेकिन फिर भी ग्रामीणों और अन्य लोगों में न तो किसी प्रकार का कोई गुस्सा और न ही किसी से कोई शिकायत है. अधिकारों-जरूरतों-सहुलियतों, नेताओं-मंत्रीयों और सरकारी कर्मचारीयों के रवैयों के विरोध में यदि यही लोग, ऎसे ही सड़कों पर, बसों पर, जीप और ट्रेक्टरों और रेलों में भरकर और पैदल यदि निकल पड़े तो क्या नही हो सकता है. अपने अधिकारों के लिये, नेताओं-अधिकारीयों और भ्रष्टाचार के खिलाफ न तो कोई एकजुट हो रहा है, न ही शांत भीड़ अचानक से कोई विकराल विरोध का रूप ले रहा है और न ही एक दिन के लिये भी कोई भीड़ उपवास रख रहा है. क्यों युहीं बर्बादी के मुकदर्शक बने हुये है? क्यों चुपचाप सहते और बिना किसी शिकायतों के जी रहे है? क्यों किसी नेता के, मंत्री के, सरकारी तंत्र के पहल की और किसी करिश्मा के होने का इंतजार कर रहे है?
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